बैठे बिठाए बस सोच में असर दिखलाये…
जब लब खुल जाये होश भी खो जाये….
इक पल में रिश्तों में दरार पड़ जाये…
ये गुस्सा जब भी आये सब तहस-नहस कर जाये….
इस क्रोध, रोष आवेश की आग से जितना हो बचा जाये…
जब भी गुस्सा आये तो ख़ामोशी इख्तियार की जाए…
माना ये मुश्किल है फिर भी अमल तो किया जाये…
इक पल का गुस्सा बरसों के रिश्तों को डूबा ले जाता है…
इससे अच्छा है गुस्से को सिर्फ़ पीया जाये…
और ज़िन्दगी को मधुर-मीठा सुकून भरा बनाया जाये…
लो प्रण की इस क्रोध रूपी राक्षश से हमेशा बचा जाये…
लो प्रण की इस क्रोध रूपी राक्षश से हमेशा बचा जाये…
लो प्रण की इस क्रोध रूपी राक्षश से हमेशा बचा जाये…
अनीश मिर्ज़ा